चली आओ राधिकारानी मेरे मन मे प्रणय समर है,
लगा ऐसा द्वंद मेरे विचारों का यह तन्मय अमर है,
उड़ा ले चली ये हवाये केश में तुम्हारे जो गन्ध को,
तोड़ते हैं वे भूलकर सब हया, उपवन के फूल को,
तुम कहती हो ये हवाये कुछ गर्म, कुछ मशहूर है,
पर हम कहते ये हवाये कुछ शर्त पर मगरूर है,
रख हथेली पर दिये को अंधेरी रातों का इंतजार है,
चली आओ राधिकारानी मेरे मन मे प्रणय समर हैं।।
ओढ़ ले चादर अगर वह धूप के साये में आकर,
फिर तुम्हारी कितनी गज़ले लिये आकाश तैयार है,
ठेलती जा रही हो किंचित मन की इन हदबंदियो को,
तोड़ती जा रही हो जैसे मेरे प्यार की उन जंजीरो को,
मगर कैसे तुम पीछा छुड़ाओगी आगोस के बंधनों से,
क्या विस्मृत कर पाओगी मेरी यादों की दासता को,
क्या भूल पाओगी उन वक्ष की सिसकियों को,
रख हथेली पर दिये को अंधेरी रातों का इंतजार है,
चली आओ राधिकारानी मेरे मन मे प्रणय समर हैं।।
शिवेंद्र मिश्रा"आकाश"
भोपाल (म.प्र.)