कू़बत-ए-हुस्न की नुमाइश कर जो इतराते हो
फ़िर क्यूं तनहाई के अंधेरों में इतना घबराते हो
नज़रें चुराने में तो कोई कमी नहीं की तुमने कभी
फिर मुझे छिपकर ना देखता देख क्यूं सहम जाते हो।
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कू़बत-ए-हुस्न की नुमाइश कर जो इतराते हो
फ़िर क्यूं तनहाई के अंधेरों में इतना घबराते हो
नज़रें चुराने में तो कोई कमी नहीं की तुमने कभी
फिर मुझे छिपकर ना देखता देख क्यूं सहम जाते हो।