पेंडुलम।।
कितनी सुंदर रातों और चमकीले दिनों को पार करके,
ज़िन्दगी मेरे ‘आज’ में रुक गयी है।
एक झूलता ‘पेंडुलम’ !
बस एक सिरे से दूसरे सिरे से टकराती ,स्थिर ज़िन्दगी।
शायद रुक जाना चाहती है,
नही चाहती आगे का सफर।
बस यहीं रुकना है,
शायद फिर से हो पिंछला सफर।
फिर से पीछे ,
वही सुंदर दिन और चमकीली रातें।
मखमली घास सी ज़िन्दगी।
बहुत खूबसूरत होता है ये ‘प्रारंभ’।
और बीच से आगे निकल जाना
और फिर से यहीं से रुक के,
‘बीते’ हुए को देखना।
जो बीएस बीत चुका है घडी और कैलेंडर में।
उसे देखना,सोचना और फिर से पाने की आस,
क्योंकि ये वर्तमान; भूत और भविष्य का छलावा है ।
आ यही से वापिस लौटने का बहाना करे।
बचपन को फिर से जीने का सहारा करे।
पेंडुलम तुम रुक जाओ।।
~Kv~
©कविता वर्मा
2:22pm
20 may